Friday, June 8, 2012

प्रथम मुलाकात


भाग्य और नियती से बड़ी कोई वस्तु नही होती है...शिशिर और अनुमेहा के विषय मे भी ये बात बिल्कुल सत्य प्रतीत होती है...जब शिशिर और अनुमेहा पहली बार मिले थे..क्या इस बात का उन्हे तनिक भी आभाष था की नियती ने उनके लिए कितना बड़ा रंगमंच निर्मित कर रखा है..

चिड़ियो के चहचहने की आवाज़ से जब अनुमेहा की नींद खुली तो उसने बिस्तर पर ही लेटे-लेटे उनीदी आंखो से खिड़की के बाहर देखा...दूर तक फैले हुए विस्तृत पर्वत श्रेणियो पे अभी भी हल्के कुहासे के बादल छाये हुए थे.. सूर्य की हल्की - हल्की लालिमा आकाश मे छा रही थी...और खिड़कियो से आते हुए मंद - मंद पवन उसके गेसुओं को धीरे धीरे सहला रहे थे...उसे याद आया आज तो इतवार है..उसने कंबल से अपना चेहरा ढका और फिर से सो गयी..

सुबह का सूरज बादलों के घूँघट से अब बाहर गया था...जैसे लज्जा से नववधू का चेहरा तब तक ही लाल रहेता है जब तक पूर्ण साक्षात्कार नही होता...साक्षात्कार के बाद लज्जा का लोप और सुनहरे प्रेम का उदय होता है..वैसे ही सूर्य के लालिमा की रेखा अब आकाश से धूमिल होने लगी थी...और प्रेम का सुनहरा रंग इस धरा पे छा गया था...
अभी तक सोते हुए देखकर माँ ने अनुमेहा को उठाते हुए कहा: "अनुमेहा उठो बेटा सुबह हो गयी है कब तक सोती रहोगी."
अनुमेहा: "-----"
मा घर के सुबह के कामो मे व्यस्त हो गयी और अनुमेहा अभी भी आराम से निद्रा परी की गोंद मे इस जग से बेख़बर सो रही थी..

पिताजी अख़बार के पन्ने पलट रहे थे...चाय का प्याला लेते हुए अनुमेहा की मा से पूछा ...अरे अनुमेहा कहा है दिखाई नही दे रही है...
मा:सो रही है अभी तक..
पिताजी ने चाय ख़तम कीऔर अंदर के कमरे मे गये जहा अनुमेहा कंबल मे अपना मूह छुपाये आराम से सो रही थी..
अरे उठो बेटा...पिताजी ने उसके चेहरे से कंबल उठाते हुए कहा पिताजी को कंबल खिचते देख वो और दुबक गयी कंबल के अंदर
ऐइ गिलहरीउठ पिताजी ने हसते हुए कहा
अनुमेहा: पापा आज तो इतवार है. सोने दीजिए ना..हू..हू..हू..
उठ जाओ बेटा चलो पार्क मे घूम के आएँगे...
अनुमेहा..आँखे मिवहते हुए..उठी और खुशी खुशी बोली पार्क मे जाएँगे..ही ही ही..और ना पापा लौटते हुए जलेबी भी लेके आएँगे.. और झट से उठ गयी

अनुमेहा अभी छठवी कच्छा की विद्यार्थी है...पड़ने मे मेधावी..बात मे अत्यंत कुचल और अत्यधिक चंचल..उसकी शरारटो और बातो का सिलसिला कभी ख़तम ही नही होता..रंग गोरा लंबी नाक और बड़ी बड़ी आँखे..और सबसे सुन्दर उसके होंठ..बड़े - बड़े कुशलता से तराशे हुए.. और बिल्कुल गुलाबी जैसे अगर ज़रा सी भी ठेश लगेगी तो रक्त छलक पड़ेंगे....


पेशे से डॉक्टर अनुमेहा के पिताजी अत्यंत मिलनसार, मृदुभाषी बड़े ही सज्जन आदमी थे.. डॉक्टर साहब का छोटा सा परिवार है अनुमेहा और उसकी मा ..बस कुल मिलाके कुल तीन लोग.. बल्कि यूँ कहा जाए की कुल चार लोगो का परिवार है तो ये बात बिल्कुल भी ग़लता नही होगी..विधवा प्रेमा मौसी को भी तो डॉक्टर साहब अपने परिवार का हिस्सा ही मानते है... प्रेमा मौसी जिनको मा अपने गाँव से लेके आई थी.. और जो अब उन लोगो के साथ ही रहेती है और घर के कामो मे माँ का हाथ बटाती है..  बड़ा सा आलीशान बंगला  ...अपना खुद का अस्पताल..परमपिता के आशीर्वाद से संतुष्ट और संपन्न ..

जब अनुमेहा और डॉक्टर साहब पार्क से लौटे तो.. लगभग नौ बाज गये थे.. घर आके अनुमेहा अपने खेल कूद मे व्यस्त हो गयीडॉक्टर साहब हस्पताल जाने के लिए तैयार होने लगेउनको तैयार होते देख मा ने पुछा अरे आज तो इतवार हैआज भी अस्पताल जाएँगे क्या ?
डॉक्टर साहब ने हसते हुए कहा पता है लेकिन कुछ ज़रूरी काम है इसलिए जाना पड़ेगा.
अरे लेकिन आज तो भाई साहिब आ रहे है नाभूल गये क्या?
अरे याद है मुझे किंतु वो लोग तो दोपहर तक आएँगे और वो जब तक आएँगे तब तक मै वापस आ जाऊँगा



दोपहर का समय, अनुमेहा दौड़ती हुई बैठके मे गयी और अपने धुन मे जैसे ही कुछ बोलने वाली थी..उसने बैठके मे कुछ लोगो को बैठे हुए देखा उसकी आवाज़ गले मे ही रह गयी....

माँ ने कहा: अरे बेटा नमस्ते करो चाचा और चाचीजी को...
अनुमेहा ने बड़ी ही शिष्टता से हाथ जोड़ के धीरे से कहा.."नमस्ते"..और फिर पैरो से फर्श पे लकीरे बनाने लगी..
वयस्क अपनी बातो मे व्यस्त हो गये... अनुमेहा जाके के माँ के पास बैठ गयी... और माँ के सारी के कोरो को अँगुलियो मे फसा के खेलने लगी....उसने कनखियो से देखा एक सवला पतला दुबला सा लड़का बड़े वाले सोफे पे अपने माँ के साथ बैठा था..

शिशिर के पिता ने बातो का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए कहा: डॉक्टर साहब कही नज़र नही रहे..??
अरे वो तो अस्पताल गये है..दरअसल वो जाने वाले नही थे किंतु कोई ज़रूरी काम गया तो जाना पड़ा..:माँ ने कहा        
तब  तक प्रेमा मौसी चाय लेके गयी..और सबको परोसने लगी..
अनेक तरह की मिठाइया..नमकीन और चाय देखकर तो शिशिर की आँखे चमक गयी..किंतु बेचारा शिष्टाचार वश बैठा रहा..
प्रेमा मौसी सारी चीज़े मेज पे रख रही थी..और अनुमेहा दादी अम्मा की तरह उसको हिदयते दे रही थे ये ऐसे रखिए और वो ऐसे रखिए..
माँ ने औपचारिकता वश सबको कहा अरे लीजिए ना आप लोग..अरे बेटा शिशिर तुम तो बड़े चुप बैठे हो कुछ खा भी नही रहे हो..उसके संकोच को भपते हुए कहा..

खाने पीने का दौर चल ही रहा था की डॉक्टर साहब ने प्रवेश किया...लीजिए अनुमेहा के पिताजी भी गये...फिर बातो का सिलसिला चल पड़ा..

माँ ने शिशिर को बिलकुल चुपचाप बैठे हुए देखा तो अनुमेहा से कहा..अरे बेटा अनुमेहा, शिशिर को पीछे बगीचे से अमरूद तोड़ के खिला दो..
अनुमेहा ने आँखे बड़ी करके माँ की ओर देखा...और फिर शिशिर की तरफ..शिशिर तो सकुच गया और उसने ..आँखे नीचे कर ली..
बेटा शिशिर जाओ अनुमेहा के साथ..पीछे बगीचे मे बहोट आचे अमरूद लगे है...अरे हा बेटा शिशिर जाओ डॉक्टर साहब ने मुस्कुराते हुए कहा और अनुमेहा को देखा

अनुमेहा शिशिर का इंतेजार किए बिना ही निकल गयी..और शिशिर उसके पीछे - पीछे चल पड़ा..अनुमेहा आगे-आगे और शिशिर उसके पीछे - पीछे चला जा रहा था..
हाँ आए बड़ा..कही के नवाब है जो हम इनके लिए अमरूद तोड़ेंगे और ये खाएँगे..ये कहेते हुए वो झटपट पेड़ पे चढ़ गयी..उसने शिशिर से कहा: यहा पेड़ के नीचे आके खड़े हो.. मैं अमरूद तोड़ के फेकुंगी..और तुम पकड़ लेना..शिशिर ने सहमति मे सिर हिलाया..
ये था इनके बीच का प्रथम संवाद..कितना ही साधारण सा दृश्य और उससे भी ज़्यादा साधारण संवाद...
इंसान का पूरा जीवन इन छोटे बड़े दृश्यो से बना होता..और अनंत दृश्यो मे से उसे कुछ ही याद रहते है..बाकी तो इस जीवन के आपा - धापी मे खो जाते है...कुछ दृश्य जिनकी महत्ता तुरंत ही समझ मे जाती है..और उनका उसके जीवन पे कितना प्रभाव पड़ेगा उसक आंशिक अनुमान भी इंसान लगा लेता है..किंतु कुछ दृश्य.. जीनकी महत्ता इंसान को नही पता होती..जब वो भविष्य मे कभी उन भूत की बातो को सोचता है..तब उसे लगता की ये साधारण सी लगने वाली चीज़े जीवन मे कितना असाधारण प्रभाव छोड़ती है
राधाजी और कृष्णा की रासलीला मे कितना रस है उसका अनुभव क्या इन सामान्य आँखो से किया जा सकता है..उसके लिए तो दिव्य दृष्टि चाहिए..और ये दिव्य दृश्य क्या सबके भाग्य मे होता है..ये तो कुछ भाग्यशाली लोग होते है..जिनके लिए ये पटकथा तैयार होती है..और पटकथाकर उपर बैठकर उस दृश्य की पटकथा तैयार करता है और फिर आशीष और आशीर्वाद से सीचता है..और साथ ही तृप्ति का अनुभव करता है...ये कुछ ऐसे दृश्य होते है जिनसे सिर्फ़ अभिनय करने वालो का ही नही बल्कि इस पूरे श्रीष्टि का भविष्य सवरता हैं और कितने ही अपरिभाषित चीज़ो को परिभाषा मिलती है..

ये थी शिशिर और अनुमेहा की पहेली मुलाकात..क्या पता था अनुमेहा को आज जिसके लिए अमरूद तोड़ने मे उसे इतना कष्ट हो रहा है..कल वो उसके लिए कुछ भी करने के लिए तत्पर रहेगी....आज जिससे वो बात भी नही कर रही..कल वो उससे हर छोटी बड़ी बात कहेगी.. उसकी कही हर छोटी बड़ी बात उसकी जीवन नीधी बनेगी..!

8 comments:

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    1. @Swati..why did you removed your comment...!!!

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    2. However..I read your comments...really appreciate it..!!!

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  4. Sorry, I thought I was getting overtly critical on your every post, that too about small mistakes, which should always be ignored, only in order to encourage. However, I kind of lurk you on facebook, so would you mind and connect over their?? Puhleez!

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