शिशिर ने अनुमेहा से कहा:
चलो प्रिये इस पूर्ण उदित चाँदनी रात मे,
भ्रमण पर जाएँगे.
बहती नदी के किनारे बैठेंगे,
पिया मिलन के लिए तल्लिनता से बहते उसके प्रवाह को,
थोड़ा छेड़ कर आएँगे.
टिमटिमाते जुगनुओ को इन हथेलियों मे छुपायेंगे,
उनकी जगमगाहट चुरायेंगे,
मन का हर कोना प्रकाशमान बनायेंगे.
ओस की बूँदो को उंगिलयों के कोरों पे उठाएँगे,
आँखों मे बसाएँगे,
और पवित्र स्वप्न
सजाएँगे.
कुछ गुनगुनाएँगे,
पूर्णिमा के चाँद को कुछ लोरियां सुनायेंगे,
हम हसेंगे, उसको भी हसाएंगे,
भविष्य की अनसुलझी गुत्थिया उसको दिखाएँगे,
हम रोएंगे, उसको भी रुलाएँगे.
फिर भोर में
जब हम वियोग के व्यथा से व्यथित होंगे,
तब हमारी नम आँखों को देखकर
चाँद कहेगा: क्यूँ व्यर्थ व्यथित होते हो
मन की उम्मीद क्यों खोते हो
देखो तुमने जो चांदनी बटोरी है
उससे जो प्रियतमा की छवि उकेरी है
उससे अंतर्मन महकाओ,
अंकुरित प्रेम के पौधे को थोड़ी सूर्य की रोशनी भी दिखाओ
अपना ये रिश्ता थोडा परिपक्व बनाओ,
मै कल पुनः आऊंगा
तुम पर पवित्र और शीतल चांदनी बिखराऊंगा,
मुझपर विश्वास करो
मैंने अनगिनत प्रेम अमर बनाये हैं
तुम्हारा भी प्रेम अमर बनाऊंगा
अनुमेहा हसी, शिशिर मुस्कुरायाँ,
उनकी नम आँखों में भी एक उम्मीद चमकने लगी.
वही उम्मीद जो अन्नत काल से है
और अनंत काल तक रहेगी.
बहुत सुन्दर थी ये कविता, लगा जैसे संगीत बन्ने के लिए तैयार है ये कविता|
ReplyDeleteThank you Swati...:)
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